हम
भारतीय सूर्यवंशी हैं यानि की सूरज वर्ष भर हमारे ऊपर अपनी कृपा निछावर
करता रहता है लेकिन उसकी ऊर्जा का दोहन हम से नहीं हो पाया। यूरोप का एक
देश जर्मनी जहाँ सौर दिनों का प्रतिशत बहुत कम है, धुन्ध है; सौर ऊर्जा
उत्पादन में विश्व में अग्रणी बना हुआ है। आज समूचे विश्व में ऊर्जा
मितव्ययी एल ई डी प्रकाश की कागजी धूम मची हुई है, वास्तविकता में वैश्विक
पण में जो सर्वोत्तम एल ई डी हार्डवेयर है वह चाहे जहाँ बनता हो, जर्मनी की
ही राह पकड़ता है।
हमारे यहाँ सोलर हो या एल ई डी परियोजनायें, ग़लीज
भ्रष्टाचार, अदक्षता, समर्पणहीनता और अनुशासनहीनता की भेंट चढ़ रहे हैं।
मार्केटिंग करने वालों का समूचा तंत्र धनपशुओं और सरकारी योजनाओं के दोहन
में लगा हुआ है। ऊर्जा क्षेत्र की इस भावी तकनीकी में हम बहुत तेजी से
पिछड़ते जा रहे हैं। लोग कहते हैं भारत अब फलाना हो रहा है, ढिमकाना हो रहा
है लेकिन मैं कहता हूँ कि यहाँ दौड़ने वाले भी अपनी जमीन खोद रहे हैं। जिस
दिन भारत से वोल्टेज स्टेबिलाइजर, इनवर्टर, सी वी टी आदि का घरेलू बाज़ार
समाप्त हो जायेगा, उस दिन मैं मानूँगा कि भारत दौड़ने लगा है।
विश्वास मानिये सौर दिनों का सम्पूर्ण दोहन भारत की तमाम आर्थिक और उससे
जुड़ी अन्य समस्याओं के उन्मूलन में सक्षम है लेकिन विजन तो हो, कोई विजनरी
तो हो!
हाँ, आप को यह भी बता दूँ कि ऐसी कई जर्मन कंपनियाँ हैं जो
अपने विद्युत उत्पादों का विपणन तो भारत में कर रही हैं लेकिन यहाँ उत्पादन
के कारखाने लगाने में उन्हें कोई बुद्धिमत्ता नहीं दिखती। एक प्रतिनिधि से
बहुत खोद कर पूछने पर पता चला कि उन्हों ने पूरा विश्लेषण किया हुआ है। वे
जो गुणवत्ता वे चाहते हैं उसे कायम रखते हुये बाहर से उत्पाद यहाँ ला कर
बेचने में परता पड़ता है - no compromise in quality! इसे आप जातीय
श्रेष्ठता का नाज़ी दम्भ भले कह लें लेकिन उनकी बात सच तो है ही।
हम
भारतीय आज तक यह भी नहीं सीख पाये कि सॉकेट में तार सीधे नहीं खोंसते, तार
को प्लग में लगा कर यूजना होता है। टोक कर देखिये, एक ही उत्तर मिलेगा -
ओसे का होई? .... की फरक पएन्दा!
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